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लेख

मानवतावादी चितेरे कवि

अमित कुमार विश्वास


बीसवीं शताब्‍दी की हिंदी कविता में विवेकसम्‍मत नैतिक चेतना को बड़े ही सुकून से आवाज देने वाले लेखक कुँवर नारायण (19 सितंबर 1927-15 नवंबर 2017) की कविता को याद करना दरअसल मनुष्‍यता के पक्ष में अपने हाथ खड़े करना जैसा है। उनकी कविता में जीवन की ध्‍वनि के साथ विचार की संवेदनात्‍मक लयात्‍मकता और तरलता, काल का लंबा वितान और स्‍थान का सुचिंति‍त भू-दृश्‍य, अपने समय की राजनीति के रूप-अरूप और समाज के भीतरी सतह और उसके तलछट को इतिहास और उससे कहीं दूर मिथकों तक जाकर देख लेने की दृष्टि, अपनी अनंत संभावनाओं वाली अर्थ की इयत्‍ता और जिम्‍मेदारी की जिजीविषा मौजूद हुआ करती है। कुँवर नारायण की कविता की इस बहुस्‍तरीयता के बारे में लिखने का साहस करना दरअसल स्‍वयं को एक संभावित खतरे में डालना है। मुझे तो इस बात का इल्‍म है कि मैं इस संभावित खतरे के घेरे में हूँ बावजूद इसके उनकी कविता के बारे में सोचते हुए, लिखते हुए स्‍वयं को समृद्ध कर रहा हूँ न कि कुँवर नारायण की कविता का मूल्‍यांकन। कुँवर नारायण की कविता के माध्‍यम से यह एक तरह से स्‍वयं को जानने की कोशिश भी है। हर कोशिश अधूरेपन की संभावना से भरी होती है, सो यह लेख भी उसी संभावना के बीच विन्‍यस्‍त है।

कुँवर नारायण की समस्‍त रचनाशीलता के बारे में पढ़ते, सुनते हुए एकरसता का बोध होता है। उनकी रचनाओं में मिथकों, आख्‍यानों का बड़ा प्रभाव रहा है। उनके दो काव्‍य संग्रह 'आत्‍मजयी' और 'वाजश्रवा के बहाने' के इतर की कविताओं का पाठ करते हुए मिथकों, आख्‍यानों की छायाओं और प्रतिछायाओं से मुक्‍त नहीं हुआ जा सकता। उनके काव्‍य को किसी एक शीर्षक के खाँचे में समाहित नहीं किया जा सकता अपितु भारतीय परंपरा से उपजे मानवतावाद, आधुनिक-बोध और विश्‍वास का स्‍वर उनकी अप्रतीम पहचान है।

अज्ञेय के शब्‍दों में साहित्‍य और राजनीति को पृथक और विरोधी तत्‍व मान लेना किसी प्राचीन युग में भी उचित न होता, आज के संघर्ष युग में वह मूर्खतापूर्ण ही है। समाज को वैज्ञानिक चेतना से युक्‍त नए सिरे से आविष्‍कृत करने वाले कवि कुँवर नारायण एक साथ सामाजिक-राजनीतिक चेतना से युक्‍त अपने को लगातार सक्रिय रखते हैं। आज राजनीति ने कुछ ऐसा सर्वव्‍यापी रूप धारण कर लिया है कि जीवन के प्रति और स्‍वयं अपनी कला के प्रति ईमानदार रहने वाला कोई भी काव्‍यकार चाहते हुए भी राजनीति के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है। मुक्तिबोध ने तो तात्‍कालीन राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि 'पार्टनर तुम्‍हारी पॉलीटिक्‍स क्‍या हैॽ' कवि कुँवर नारायण ने भी राजनीति में बढ रहे अमानवीयता के तत्‍वों को बड़ी बारीकी से रेखांकित करते हुए आधुनिक राजनीति को 'महाभारत' के प्रसंग से जोड़ा है- 'धृतराष्‍ट्र अँधे/ विधुर नीति हुई फेल/धर्मराज धूर्तराज दोनों जुआड़ी/ पाँसे खनखनाते हुए/ राजनीति में शकुनी का प्रवेश/...' आशय स्‍पष्‍ट है‍ कि आज राजनीति में भ्रष्‍टाचार का बोलबाला तो है ही, शकुनी जैसा स्‍वार्थी सम्‍मान पाकर सिंहासन पर विराजमान हो रहे हैं। कवि ने तो राजनीति के रणक्षेत्र चुनावी परिदृश्‍य पर भी लिखा है कि, 'न धर्मक्षेत्रे न कुरूक्षेत्रे/ सीधे-सीधे चुनाव क्षेत्रे/ जीत की प्रबल इच्‍छा से/ इकट्ठा हुए महारथियों के/ ढपोर शंखीनाद से/ युद्ध का श्रीगणेश/दलों के दलदल में जूझ रहे/आठ धर्म, अट्ठारह भाषाएं अठ्ठाइस प्रदेश।'

सामाजिक सद्भावना की दृष्टि से कवि की सोच वृहत्‍तर फलक पर होना चाहिए। सामाजिक सद्भाव व समतामूलक समाज के निर्माण में धार्मिक कट्टरता सबसे बड़ी बाधा है। कवि ने इस बाधा को बड़े ही यथार्थ रूप में रेखांकित किया है। धर्मांधता को सामाजिक विद्रूपता की संज्ञा देते हुए उन्‍होंने 'अयोध्‍या 1992' नामक कविता में लिखा कि - 'हे राम/जीवन एक कटु यथार्थ है/और तुम एक महाकाव्‍य/अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं/योद्धाओं की लंका है/ 'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं/चुनाव का डंका है/सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ/किसी पुराण- किसी धर्मग्रंथ में/सकुशल सपत्नीक/अब के जंगल वे जंगल नहीं/जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि!'

कवि कुँवर नारायण मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम को संबोधित करते हुए कहते हैं कि वर्तमान में विवेक, सामाजिक सौहार्द, सद्भावना आदि का कोई महत्‍व नहीं रह गया है। असुर सम्राट रावण के तो दस सिर थे पर आज सांप्रदायिक रूपी रावण के अनेकानेक या यों कहें कि लाखों सिर हैं और विभीषण का भी कहीं पता नहीं है। अब तो सारी धार्मिकता, सद्भावना अयोध्‍या तक ही सीमित हो गई है। वर्तमान परिदृश्‍य में कुछ लोग राजनीति के लिए धार्मिक उन्‍माद फैलाने के लिए ही भगवान श्रीराम का सहारा लेते हैं। कुँवर नारायण आज के दमघोटूं दौर को लक्षित करते हुए 'अयोध्या' में राम को सलाह देते हैं कि हे राम तुम लौट जाओ वापस क्योंकि यह तुम्हारा त्रेता युग नहीं, यह नेता युग है। यहाँ अयोध्या को ही लंका बना दिया गया है।

सच तो यह है कि आज अयोध्‍या राम की है या योद्धाओं की लंका है। अयोध्‍या विवाद के उपरांत 1992 में लिखी अयोध्‍या कविता कट्टरपपंथियों पर तो तमाचा है ही और साथ ही उनपर भी जो धर्म की आड़ में राजनीति की रोटी सेंकते हैं। आपको याद ही होगा कि राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद से उपजे धार्मिक उन्‍माद में कितने लोग काल-कवलित हो गए। जरा उनसे पूछ आइए जिन्‍होंने सांप्रदायिक दंगे में अपने पिता को खोया, पत्‍नी ने पति को और माँ ने अपने लाल को। क्‍या कोई भी मुआवजा या क्षतिपूर्ति उन दर्द की भरपाई कर पाएगी? और यह भी कि जिन रामलला मंदिर के लिए करोड़ों हिंदुओं ने अपने सिर पर ढोकर ईंट जमा की थी उन ईटों का क्‍या कोई लेखा-जोखा हो पाया है?

कवि कुँवर नारायण ने बाबरी विध्‍वंस की घटना को अमानवीय करार देते हुए ऐसे कुकृत्‍यों से दूर रहने की प्रेरणा दी है। उनकी दृष्टि में मानव-मानव में किसी भी प्रकार का भेद जायज नहीं है। वे तो मनुष्‍य की मानवता को सर्वोपरि मानते हुए कहते हैं कि समाज को जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के नाम पर नहीं बांटा जाना चाहिए। नफरत की हिंसा से बढ़कर है मानवतावादी प्रेम। 'एक अजीब सी मुश्किल में हूँ इन दिनों' शीर्षक कविता में कवि कुँवर नारायण अतीत के संस्‍कृति पुरोधाओं को केंद्र में रखते हुए संपूर्ण मानव जाति को प्रेम से सह-अस्तित्‍व के साथ रहने की बात करते हुए कहते हैं- 'अंग्रेजों से नफरत करना चाहता/जिन्‍होंने दो सदी हम पर राज किया/तो शेक्‍सपियर आडे़ आ जाते... मुसलमानों से नफरत करने चलता/ तो सामने गालिब आकर खड़े हो जाते हैं/ सिखों से नफरत करना चाहता/ तो गुरुनानक ऑंखों में छा जाते/' कुँवर नारायण की कविता में प्रेम स्‍थान-परिवेश से आबद्ध नहीं है, प्रेम का ताप सर्वव्‍यापी है, नफरत के लिए कोई जगह नहीं और यह प्रेम दुनिया के नक्‍शे में पैबस्‍त है।

नई कविता आंदोलन के अग्रणी कवि कुँवर नारायण आर्थिक रूप से संपन्‍न परिवार के थे लेकिन उनकी चिंता सदैव दबे-कुचले लोग हैं जिनके बिना यह दुनिया चल नहीं सकती। दूसरी ओर कई ऐसे लेखक भी हैं जो गरीब परिवारों से आए हैं। लेकिन वे उसी व्‍यवस्‍था के पोषक हैं जिसके द्वारा दुनिया में विषमता पैदा हुई। इसलिए किसी भी लेखक के लिए मुख्‍य बात यह नहीं है कि वह कहाँ और कैसे परिवार में पैदा हुआ, बल्कि मुख्‍य बात यह है कि मनुष्‍यता के प्रति कितना सचेत है। कवि नरेश सक्‍सेना लखनऊ में कुँवर नारायण के पड़ोसी हैं। उन्‍होंने कहा कि 'कुँवर नारायण के पास मैंने कभी किसी ऐसे व्‍यक्ति को आते नहीं देखा जो साहित्‍य और कला से जुड़ा न हो।' कुँवर नारायण अपनी एक कविता में लिखते हैं, 'अब मैं एक छोटे से घर/और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूँ/कभी मैं एक बहुत बड़े घर/और छोटी-सी दुनिया में रहता था/कम दीवारों से/बड़ा फर्क पड़ता है/दीवारें न हों/ तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।' यह तो सच है कि कुँवर नारायण की कविता हमेशा मेहनतकश गरीबों, मजदूरों की व्‍यथा-कथा को बयां करती हैं। उन्‍होंने 'आदमी का चेहरा' नामक कविता में कुली के श्रम पर गहराई से चिंतन किया है। यह तो सच है कि हम गरीबों, मजदूरों की मेहनत को नजरअंदाज कर देते हैं, उनके श्रम की महत्‍ता को नहीं समझते हैं। कई बार तो मजदूरों को दुत्‍कार कर, डाँट भी देते हैं। कवि कुँवर नारायण ने श्रमजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करने वाले कुली के परिश्रम की महत्‍ता को बड़े ही सुंदर पंक्तियों में पिरोया है- 'कुली पुकारते ही/कोई मेरे अंदर चौका/एक आदमी/आकर खड़ा हो गया मेरे पास/सामान सिर पर लादे/मेरे स्‍वाभिमान से दस कदम आगे/बढ़ने लगा वह/जो कितनी ही यात्राओं में/ढो चुका था मेरा सामान।'

आज जिस 'विकास-लहर' की बात की जा रही है। सच तो यह है कि लाखों-करोड़ों ऐसे मजदूर हैं जो दिनरात मेहनत मजदूरी करके भी दो वक्‍त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे हैं। 'रिक्‍शा पर' नामक कविता में कवि कुँवर नारायण रिक्‍शा चालकों की दयनीय स्थिति को बयाँ कर कहते हैं- 'आगे कठिन चढाई/देखा रिक्‍शा वाले ने तो ताकत भर एड़ लगाई/लेकिन गरीब की हिम्‍मत/हद भर मौटे के आगे कुछ ज्‍यादा काम न आई।'

आज सच में जब देश की बुद्धि और चेतना को कुंठित करने और उसे किसी नेता की डिब्बी में, तो किसी संगठन के ध्वज में, चंद नारों में या कानून की किसी दफाओं में कैद करने का प्रयास चल रहा है तो ऐसे में कुँवर नारायण की कविता हमेशा पृथ्‍वी पर निकली हुई जैसी लगती है। जिन लोगों का परिचय विश्‍व कविता से थोड़ा भी है और वे आक्‍टोवियो पाज, मलार्मे, शिम्‍बोर्स्‍का, रिल्‍के, पाब्‍लो नेरुदा, फेदरिको गार्सिया लोर्का, नाजिम हिकमत, कोंस्‍तान्‍ती कवाफी, एर्नेस्‍तो कार्देनाल, फर्नांदो पेसोआ जैसे कवि की कविता से परिचित हैं। वे जानते हैं कि कविताएं जब अपनी यात्रा पर निकलती हैं तो उसकी भाव-यात्रा का भूगोल किसी खास परिक्षेत्र का भूगोल नहीं लगता बल्कि वह हमारे आस-पास, हमारे ही भीतर का लगता है। कुंवर नारायण की नागरिकता 'चेतना के असीम' और 'वैश्विक भावदशा' से निर्मित है इसलिए उनके हर कहन में संजीदगी और ईमानदारी दिखलाई देती है। उनकी कविताओं की चिंता कविकर्म को मानवीय प्रयोजन से निरपेक्ष करके देखने की नहीं है। कल्पना, अनुभूति, संवेदना, विचार और भाषा के समस्त उपक्रम कवि की दृष्टि में मानव नियति के प्रति वैचारिक संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं को रूप देने के साधन मात्र हैं। कवि का काव्य अनुभववाद से आगे दार्शनिक आधार पर टिका है, पर दार्शनिकता भी यहां ठोस मानवीय स्थितियों से ही जुड़ी हुई है। भूख, शोषण, सामाजिक समरसता आदि के लिए हम जब भी कुंवर नारायण की कविता के पास जाते हैं, जाना चाहते हैं तो एक अभिसार बोध के साथ उनमें आशावादिता दिखती है। वे कहते हैं कि- 'अबकी अगर लौटा तो/बृहत्तर लौटूँगा/चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं/कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं/जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को/तरेर कर न देखूँगा उन्हें/भूखी शेर-आँखों से/अबकी अगर लौटा तो/मनुष्यतर लौटूँगा/घर से निकलते/सड़कों पर चलते/बसों पर चढ़ते/ट्रेनें पकड़ते/जगह बेजगह कुचला पड़ा/पिद्दी-सा जानवर नहीं/अगर बचा रहा तो/कृतज्ञतर लौटूँगा/अबकी बार लौटा तो/हताहत नहीं/सबके हिताहित को सोचता/पूर्णतर लौटूँगा।' यह तो सच है कि कविता का पक्ष हमेशा से 'मानवीय मूल्‍यों' का पक्ष रहा है। इस वजह से पक्षधरता हमेशा से 'अमानवीयकरण के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया' भी रही है। समकालीन संदर्भों में देखा जाए तो काव्‍यात्‍मक-अभिव्‍यक्ति सिर्फ बुनियादी आवेगों की अभिव्‍यक्ति भर नहीं है बल्कि आवेगों की इस प्रकृति के प्रति 'सचेत और सतर्क' कार्यवाही भी है। इसलिए कुँवर नारयण की कविता 'समकालीन जीवन से ज्‍यादा पक्षों' को टच करने वाली है, उनकी दृष्टि और भाषा विस्‍तृत व विविध है। इन अर्थों में उनके लिए कविता आज के पाठक से '‍अतिरिक्‍त धैर्य और प्रबुद्ध उत्‍साह' की अतिरिक्‍त मांग करती है क्‍योंकि आज वह आकर्षण से अधिक खोज का संभावित संसार भी है। मानवतावाद के पक्ष में जब भी बात की जाएगी, कुँवर नारायण अपनी अनुपस्थिति में भी हमारे बीच अधिक उपस्थित रहेंगे।

संदर्भ -

1. शर्मा, अमरेंद्र कुमार (जनवरी-मार्च, 2018). 'कुँवर नारायण की कविता: पारिस्थितिकी का अंत:साक्ष्‍य', बहुवचन, वर्धा: म.गां.अं.हिं.वि.।

2. तिवारी, राधेश्‍याम (जनवरी-मार्च, 2018). 'कुँवर नारायण: अपने को गहरी नींद में सोए हुए देखना', बहुवचन, वर्धा: म.गां.अं.हिं.वि.।

3. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/114849

4. https://vishwahindijan.blogspot.com/2018/02/blog-post_21.html

5. https://samvedan-sparsh.blogspot.com/2018/01/6.html


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